रहस्यमय और अदभुत श्री यंत्र
भगवती महालक्ष्मी की कृपा प्राप्ति का सबसे प्रभावी उपाय है श्री यंत्र की विधिवत साधना. यह एक ऐसा विधान है जो अभूतपूर्व सफलता प्रदायक है. जब किसी भी अन्य उपाय से भगवती की प्रसन्नता प्राप्त न हो पा रही हो तो यह साधना विधान प्रयोग करना चाहिए. श्री यंत्र के बारे में कहा गया है कि.
चतुः षष्टया तंत्रै सकल मति संधाय भुवनम । स्थितस्तत्सिद्धि प्रसव परतंत्रैः पशुपतिः । पुनस्त्वनिर्बन्धादखिल पुरूषार्थैक घटना । स्वतंत्रं ते तंत्रं क्षितितलमवातीतरदिदम । देवाधिदेव भगवान महादेव शिव ने इस सकल भुवन को ६४ तंत्रो से भर दिया और फिर अपने दिव्य तापसी तेज से समस्त पुरूषार्थों को प्रदान करने में सक्षम श्री तंत्र को इस धरा पर प्रतिष्ठित किया. आशय यह कि श्री विद्या से संबंधित तंत्र ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ तंत्र है जिसकी साधना ऐसे योग्य साधकों और शिष्यों को प्राप्त होती है जो समस्त तंत्र साधनाओं को आत्मसात कर चुके हों. इस साधना को प्रदान करने के लिए कहा गया है कि :- गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः, पिता पुत्रो न दातव्यं गोपनीयं महत्वतः ... इस विद्या को सप्रयास गोपनीय रखना चाहिये, यह इतनी गोपनीय विद्या है कि इसे पिता को पुत्र से भी छुपाकर रखना चाहिये.
तंत्र के क्षेत्र में श्री विद्या को निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे गोपनीय माना जाता है. श्री विद्या की साधना का सबसे प्रमुख साधन है श्री यंत्र... इसकी विशिष्टता का अनुमान इसी बात से लगाया जाता है कि सनातन धर्म के पुनरूद्धारक, भगवान शिव का अवतार माने जाने वाले, जगद्गुरू आदि शंकराचार्य ने जिन चार पीठों की स्थापना की, उनमें उन्होने पूरी प्रामाणिकता के साथ श्री यंत्र की स्थापना की. जिसके परिणाम के रूप में आज भी चारों पीठ हर दृष्टि से, फिर वह चाहे साधनात्मक हो या फिर आर्थिक, पूर्णता से युक्त हैं.
श्री यंत्र की आकृति
श्री यंत्र से होने वाले लाभ
श्री यंत्र प्रमुख रूप से ऐश्वर्य तथा समृद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी का सिद्ध यंत्र है. यह यंत्र सही अर्थों में यंत्रराज है. इस यंत्र को स्थापित करने का तात्पर्य श्री को अपने संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ आमंत्रित करना होता है. कहा गया है कि :- श्री सुंदरी साधन तत्पराणाम् , भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव.... अर्थात जो साधक श्री यंत्र के माध्यम से त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी की साधना के लिए प्रयासरत होता है, उसके एक हाथ में सभी प्रकार के भोग होते हैं, तथा दूसरे हाथ में पूर्ण मोक्ष होता है. आशय यह कि श्री यंत्र का साधक समस्त प्रकार के भोगों का उपभोग करता हुआ अंत में मोक्ष को प्राप्त होता है. इस प्रकार यह एकमात्र ऐसी साधना है जो एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनों ही प्रदान करती है, इसलिए प्रत्येक साधक इस साधना को प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है. इस अद्भुत यंत्र से अनेक लाभ हैं, इनमें प्रमुख हैं :- · श्री यंत्र के स्थापन मात्र से भगवती लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है. · कार्यस्थल पर इसका नित्य पूजन व्यापार में विकास देता है. · घर पर इसका नित्य पूजन करने से संपूर्ण दांपत्य सुख प्राप्त होता है. · पूरे विधि विधान से इसका पूजन यदि प्रत्येक दीपावली की रात्रि को संपन्न कर लिया जाय तो उस घर में साल भर किसी प्रकार की कमी नही होती है. · श्री यंत्र पर ध्यान लगाने से मानसिक क्षमता में वृद्धि होती है. उच्च यौगिक दशा में यह सहस्रार चक्र के भेदन में सहायक माना गया है. · यह विविध वास्तु दोषों के निराकरण के लिए श्रेष्ठतम उपाय है. विविध पदार्थों से निर्मित श्री यंत्र
श्री यंत्र का निर्माण विविध पदार्थों से किया जा सकता है. इनमें श्रेष्ठता के क्रम में प्रमुख हैं -
उपरोक्त पदार्थों का उपयोग यंत्र निर्माण के लिए करना श्रेष्ठ है. लकडी, कपडा या पत्थर आदि पर श्री यंत्र का निर्माण न करना श्रेष्ठ रहता है. श्री यंत्र के निर्माण के समान ही इसका पूजन भी श्रम साध्य होने के साथ-साथ विशेष तेजस्विता की अपेक्षा भी रखता है. कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने के लिए श्रेष्ठ मुहूर्त का होना भी अनिवार्य होता है. श्री यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा के निमित्त श्रेष्ठतम मुहूर्तों पर एक दृष्टिपात करते हुए पूजन विधि पर प्रकाश डालने का प्रयास करूंगा. श्रेष्ठ मुहूर्त श्री यंत्र के निर्माण व पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहुर्त है कालरात्रि अर्थात दीपावली की रात्रि. इस रात्रि में स्थिर लग्न में यंत्र का निर्माण व पूजन संपन्न किया जाना चाहिये. इसके बाद माघ माह की पूर्णिमा, शिवरात्रि, शरद पूर्णिमा, सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण का मुहूर्त श्रेष्ठ होता है. यद्यपि ग्रहण को सामान्यतः शुभ कर्मों के लिए प्रयोग नही किया जाता इसलिए यहां संदेह होना स्वाभाविक है, मगर श्री विद्या पूर्णते तांत्रोक्त विद्या है तथा तांत्रोक्त साधनाओं के लिए ग्रहण को श्रेष्ठतम मुहूर्त मान गया है. उपरोक्त मुहूर्तों के अलावा अक्षय तृतीया, रवि पुष्य योग, गुरू पुष्य योग, आश्विन माह को छोडकर किसी भी अमावस्या या किसी भी पूर्णिमा को भी श्रेष्ठ समय मे यंत्र निर्माण व पूजन किया जा सकता है. यहां मैं यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य समझता हूं कि, सभी तांत्रोक्त विधानों की तरह, यदि श्री यंत्र का निर्माण तथा पूजन करने वाला, श्री विद्या का सिद्ध साधक या गुरू हो, तो उनके द्वारा निर्दिष्ट समय उपरोक्त मुहूर्तों से भी ज्यादा श्रेष्ठ तथा फलदायक होगा. किसी भी पूजन की विधि से ज्यादा महत्व पूजन को संपन्न कराने वाले साधक की साधनात्मक तेजस्विता का होता है. यदि पूजनकर्ता की साधनात्मक उर्जा नगण्य है तो पूजन और प्राण-प्रतिष्ठा अर्थहीन हो जाएगी. इसलिए श्री यंत्र के पूजन से पहले पूजनकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि, वह कम से कम एक बार श्री विद्या या महालक्ष्मी मंत्र का पुरश्चरण पूर्ण कर चुका हो.
पूजन विधि सबसे पहले शुद्ध जल से स्नान करके पूर्व दिशा की ओर देखते हुए बैठ जायें. सामने यंत्र को स्थापित करें. 1. सर्वप्रथम ÷क्क श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमे' से आचमन करें . 2. पवित्री करण करें. 3. संकल्प लें अपनी कामना को व्यक्त करें. 4. भूमि पूजन करें. 5. गणपति पूजन करें. 6. भैरव पूजन करें. 7. गुरू पूजन करें. 8. भूतशुद्धि करें, इसके लिए पुरूष सूक्त का पाठ करें. 9. घी का दीपक जलायें. 10. ऋष्यादिन्यास. करन्यास तथा अंगन्यास संपन्न करें. 11. श्री विद्या का ध्यान करने के बाद श्री सूक्त के सोलह पाठ संपन्न करें. 12. इसके पश्चात लक्ष्मी सूक्त का एक पाठ संपन्न करें. 13. श्री सूक्त के सोलह श्लोकों से श्री यंत्र का षोडशोचार पूजन संपन्न करें. 14. प्रत्येक श्लोक के साथ यंत्र के मध्य में केसर से बिंदी लगायें जैसे आप षोडशी की सोलह कलाओं को वहां स्थापित कर रहे हों. 15. अंत में श्री सूक्त के सोलह श्लोकों के साथ आहुति संपन्न करें. विधान १००० बार पाठ तथा १०० बार हवन का है. 16. इसमें प्रत्येक श्लोक के साथ स्वाहा लगाकर आहुति देंगें. |